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“आख़िरी पंक्ति का साधक: एक आत्मा की यात्रा”

पंजाब के ब्यास के पास एक छोटे से गाँव में अर्जुन नाम का एक लड़का रहता था। न तो वो पढ़ाई में बहुत होशियार था, न ही किसी भीड़ में खास नजर आता था। स्कूल में उसे कोई खास तवज्जो नहीं देता, और सत्संगों में भी वो हमेशा सबसे पीछे बैठता — चुपचाप, बिना कोई सवाल किए, बस सुनता रहता।

उसके पिताजी राधा स्वामी सत्संग के पक्के अनुयायी थे। जब अर्जुन छोटा था, तभी से उसे सत्संगों में ले जाते। जहाँ ज़्यादातर बच्चे सत्संग में ऊब जाते थे, वहीं अर्जुन को वहाँ एक अजीब सी शांति मिलती थी। उसे हर बात समझ तो नहीं आती थी, लेकिन वहाँ का वातावरण, शब्दों की मिठास, और सेवादारों की विनम्रता उसके मन को छू जाती थी।

एक बार मानसून के मौसम में गाँव की गलियाँ पानी से भर गईं। ज़्यादातर लोग सत्संग न जा सके। लेकिन अर्जुन — नंगे पाँव, कीचड़ से भरी गलियों से होकर — सत्संग पहुँचा। वह पूरी तरह भीगा हुआ था, पैर काँप रहे थे, लेकिन फिर भी वह उसी आख़िरी पंक्ति में बैठ गया।

उस दिन सत्संग में ब्यास से आए एक वरिष्ठ सेवादार प्रवचन दे रहे थे। प्रवचन के बीच उन्होंने अचानक कहा:

“कभी-कभी पीछे बैठने वाला सबसे आगे निकल जाता है। जो बिना दिखावे के, सिर्फ प्रेम और समर्पण से चलता है — उसी की झोली सबसे पहले भरती है।”

ये कहते हुए उन्होंने अचानक अपनी नज़र अर्जुन पर डाली — और मुस्कुरा दिए।

सत्संग के बाद उन्होंने अर्जुन को बुलाया, उसका नाम पूछा, और कहा, “बेटा, सेवा में मन लगाना, बिना शोर किए। मालिक हर कदम देख रहा है। तू किसी दिन बहुत बड़ा साधक बनेगा।”

वो दिन अर्जुन की ज़िन्दगी का मोड़ था। उसने पूरी निष्ठा से सेवा करना शुरू किया — झाड़ू लगाना, पानी पिलाना, संगत के जूते सँभालना — और कभी खुद को आगे नहीं किया। धीरे-धीरे उसका चेहरा सब पहचानने लगे, लेकिन वो वही रहा — विनम्र, शांत, और समर्पित।

वर्षों बाद, उसी सत्संग भवन में, लोग उसी अर्जुन को गुरु की शिक्षाओं पर बोलते हुए सुनते थे। लेकिन जब कोई तारीफ करता, वो हमेशा कहता:

“मैं तो आज भी वही आख़िरी पंक्ति का साधक हूँ। जो कुछ भी मिला — मालिक की दया से मिला।”


शिक्षा: जो प्रेम, नम्रता और सच्चे समर्पण से चलता है, उसे मंज़िल जरूर मिलती है — चाहे वो आख़िरी पंक्ति में क्यों न बैठा हो। राधा स्वामी मार्ग में दिखावा नहीं, भावना मायने रखती है।

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Inspirational Story